बावजूदे कि पर-ओ-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा कि फ़रिश्ते का भी मक़्दूर न था
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कहते न थे हम 'दर्द' मियाँ छोड़ो ये बातें
जी की जी ही में रही बात न होने पाई
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे
ने गुल को है सबात न हम को है ए'तिबार
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके
अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
कभू रोना कभू हँसना कभू हैरान हो जाना