पर-फ़िशाँ है थका थका सा ख़याल
बे-कराँ वुसअतों के घेरे में
जैसे इक फ़ाख़्ता हो गर्म-ए-सफ़र
शाम के मल्गजे अँधेरे में
Allama Iqbal
Wasi Shah
Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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शौक़-ओ-अरमाँ की बे-क़रारी को
ज़िंदगी इस तरह भटकती है
तेरी फ़ितरत सुकूँ-पसंदी है
आरज़ू है कि अब मिरी हस्ती
जब कभी आलम-ए-तसव्वुर में
और कुछ दैर अभी ठहर जाओ
चेहरा-ए-आफ़ाक़ को देती है नूर
मुस्कुराया है यूँ तिरा चेहरा
हाल-ए-दिल तुम से आज कहता हूँ
ये चमेली की अध-खिली कलियाँ
दिल पे लगते हैं सैकड़ों नश्तर
दिल में न जाने कितनी उमीदें लिए हुए