मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
दिल ने ग़म-ए-बे-हिसाब क्या क्या देखा
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
अब ख़्वाब से चौंक वक़्त-ए-बेदारी है
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा
अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
अश्कों में नहाओ तो जिगर ठंडे हों
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू
क्या दस्त-ए-मिज़ा को हाथ आई तस्बीह