मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न समझा गया अब्र क्या देख कर
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब