हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
न समझा गया अब्र क्या देख कर