यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया