ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन