'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश