इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब