'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की