सुना है चाह का दावा तुम्हारा
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब