ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे