ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर