ठहरना दिल में कुछ बेहतर न जाना
भरे घर को उन्हों ने घर न जाना
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क़ब्र पर क्या हुआ जो मेला है
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता
मसीहा जा रहा है दौड़ कर आवाज़ दो 'मुज़्तर'
मियान-ए-हश्र ये काफ़िर बड़े इतराए फिरते हैं
आओ तो मेरे आइना-ए-दिल के सामने
साक़ी तिरी नज़र तो क़यामत सी ढा गई
इन बुतों की ही मोहब्बत से ख़ुदा मिलता है
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
ज़बाँ क़ासिद की 'मुज़्तर' काट ली जब उन को ख़त भेजा
कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
ऐश के रंग मलालों से दबे जाते हैं
सुब्ह तक कौन जियेगा शब-ए-तन्हाई में