गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए
लरज़ते काँपते हाथों से बूढ़ा
बड़ा है दुख सो हासिल है ये आसानी मुझे
यक़ीन के ख़िलाफ़
सफ़र से मुझ को बद-दिल कर रहा था
सियाने थे मगर इतने नहीं हम
यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल
रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
किसी ताँगे में फिर सामान रक्खा जा रहा है