औरों से पूछिए तो हक़ीक़त पता चले
तन्हाई में तो ज़ात का इरफ़ान हो चुका
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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यहाँ वहाँ की बुलंदी में शान थोड़ी है
घर में बेचैनी हो तो अगले सफ़र की सोचना
उस के आने पे भी नहीं आई
जिन को क़ुदरत है तख़य्युल पर उन्हें दिखता नहीं
छोड़िए बाक़ी भी क्या रक्खा है उन के क़हर में
पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिल्कुल चाहिए
ख़ुदा को आज़माना चाहिए था
इसी पर ख़ुश हैं कि इक दूसरे के साथ रहते हैं
उस को न ख़याल आए तो हम मुँह से कहें क्या
इस ए'तिबार से बे-इंतिहा ज़रूरी है
दश्त को जा तो रहे हो सोच लो कैसा लगेगा
ख़ुद फ़रिश्ते तो नहीं हैं जो मुझे ले जा रहे हैं