'शुजा' मौत से पहले ज़रूर जी लेना
ये काम भूल न जाना बड़ा ज़रूरी है
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हज़ार रंग में मुमकिन है दर्द का इज़हार
जो क़िस्सा था ख़ुद से छुपाया हुआ
लोगों ने हम को शहर का क़ाज़ी बना दिया
दो चार नहीं सैंकड़ों शेर उस पे कहे हैं
इसी पर ख़ुश हैं कि इक दूसरे के साथ रहते हैं
निकाल ज़ात से बाहर निकाल तन्हाई
रुख़ हवा का ये कि जैसे उस को आसानी पड़े
जैसा मंज़र मिले गवारा कर
औरों से पूछिए तो हक़ीक़त पता चले
पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिल्कुल चाहिए
उस बेवफ़ा का शहर है और वक़्त-ए-शाम है
उस के आने पे भी नहीं आई