या तो जो ना-फ़हम हैं वो बोलते हैं इन दिनों
या जिन्हें ख़ामोश रहने की सज़ा मालूम है
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विज्दान में वो आया इल्हाम हुआ मुझ को
दश्त को जा तो रहे हो सोच लो कैसा लगेगा
उस को न ख़याल आए तो हम मुँह से कहें क्या
तंगी-ए-हैअत से टकराता हुआ जोश-ए-मवाद
समझते क्या हैं इन दो चार रंगों को उधर वाले
दिन के पास कहाँ जो हम रातों में माल बनाते हैं
जो क़िस्सा था ख़ुद से छुपाया हुआ
जो ज़िंदा हो उसे तो मार देते हैं जहाँ वाले
शिद्दत-ए-इंतिज़ार काम आई
दिल में नफ़रत हो तो चेहरे पे भी ले आता हूँ
चलो ये तो हादसा हो गया कि वो साएबान नहीं रहा
गरचे बादल पानी बरसाता हुआ घर घर फिरा