किसी के रास्ते की ख़ाक में पड़े हैं 'ज़फ़र'
मता-ए-उम्र यही आजिज़ी निकलती है
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बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़
ये अलग बात कि वो दिल से किसी और का था
आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह
ना-ख़ुदा छोड़ गए बीच भँवर में तो 'ज़फ़र'
कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले
सब बड़े ज़ोम से आए थे नए सूरत-गर
उम्मीद-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ ख़िज़ाँ से खींचते हैं
ख़ुशा ऐ ज़ख़्म कि सूरत नई निकलती है
बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं
ख़याल-ए-ताज़ा से करते हैं ख़्वाब-ए-नौ तख़्लीक़