ख़याल-ए-ताज़ा से करते हैं ख़्वाब-ए-नौ तख़्लीक़
'ज़फ़र' ज़मीनें नई आसमाँ से खींचते हैं
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हर सम्त शोर-ए-बंदा ओ साहिब है शहर में
इक ख़ौफ़-ए-दुश्मनी जो तआक़ुब में सब के है
कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
किसी के रास्ते की ख़ाक में पड़े हैं 'ज़फ़र'
ये अलग बात कि वो दिल से किसी और का था
उम्मीद-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ ख़िज़ाँ से खींचते हैं
ये अहद क्या है कि सब पर गिराँ गुज़रता है
बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं
ना-ख़ुदा छोड़ गए बीच भँवर में तो 'ज़फ़र'
आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह
बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़
जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले