हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं
जैसे बच्चे किसी त्यौहार में गुम हो जाएँ
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टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़'
ये मैं भी क्या हूँ उसे भूल कर उसी का रहा
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
मिज़ाज हम से ज़ियादा जुदा न था उस का
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए
दीवार-ए-गिर्या
मैं और तू