हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल'
उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे
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महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं
ये मेहर है बे-मेहरी-ए-सय्याद का पर्दा
चमन में रख़्त-ए-गुल शबनम से तर है
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
तिरे सीने में दम है दिल नहीं है
रगों में वो लहू बाक़ी नहीं है
तू क़ादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहाँ में
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
ज़ोहद और रिंदी
न आते हमें इस में तकरार क्या थी