किसी ग़रीब को ज़ख़्मी करें कि क़त्ल करें
निगाह-ए-नाज़ पे जुर्माने थोड़ी होते हैं
Ahmad Faraz
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बहुत इरादा किया कोई काम करने का
फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था
इस में क्या शक है कि आवारा हूँ मैं
सामने आ कर वो क्या रहने लगा
मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक
दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शुऊर'
हवस बला की मोहब्बत हमें बला की है
वो मुझ से रूठ न जाती तो और क्या करती
जो सुनता हूँ कहूँगा मैं जो कहता हूँ सुनूँगा मैं
'शुऊर' ख़ुद को ज़हीन आदमी समझते हैं
कोई ज़ंजीर नहीं तार-ए-नज़र से मज़बूत
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती