हुस्न को शर्मसार करना ही
इश्क़ का इंतिक़ाम होता है
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आप की मख़्मूर आँखों की क़सम
न उन का ज़ेहन साफ़ है न मेरा क़ल्ब साफ़ है
ये जहाँ बारगह-ए-रित्ल-ए-गिराँ है साक़ी
डुबो दी थी जहाँ तूफ़ाँ ने कश्ती
नुमाइश में
आज
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
मज़दूरों का गीत
सीने में उन के जल्वे छुपाए हुए तो हैं
रह-ए-शौक़ से अब हटा चाहता हूँ
पर्दा और इस्मत