मंसूर से कम नहीं है वो भी
जो अपनी ज़बाँ से बोलता है
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मैं कि अब तेरी ही दीवार का इक साया हूँ
दो दरिया भी जब आपस में मिलते हैं
क्या ज़माना है ये क्या लोग हैं क्या दुनिया है
देख कर उस हसीन पैकर को
इस औज पर न उछालो मुझे हवा कर के
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
याद आएँगे ज़माने को मिसालों के लिए
हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं
जबीं का चाँद बनूँ आँख का सितारा बनूँ
ज़िंदगी में ऐसी कुछ तुग़्यानीयाँ आती रहीं
हमें सलीक़ा न आया जहाँ में जीने का
कोई मंज़र भी सुहाना नहीं रहने देते