सोचता हूँ तिरी तस्वीर दिखा दूँ उस को
रौशनी ने कभी साया नहीं देखा अपना
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जो उस के होंटों की जुम्बिश में क़ैद था 'अशहर'
भीगी भीगी पलकों पर ये जो इक सितारा है
वो भी कुछ भूला हुआ था मैं कुछ भटका हुआ
सताया आज मुनासिब जगह पे बारिश ने
वो किसी को याद कर के मुस्कुराया था उधर
कभी कसक जुदाई की कभी महक विसाल की
ले गईं दूर बहुत दूर हवाएँ जिस को
आरज़ू है सूरज को आइना दिखाने की
ठहरी ठहरी सी तबीअत में रवानी आई
'अशहर' बहुत सी पत्तियाँ शाख़ों से छिन गईं
न जाने कितने चराग़ों को मिल गई शोहरत