मकशूफ़ हुआ कि दीद हैरानी है
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
कैफ़ियत-ओ-ज़ौक़ और ज़िक्र-ओ-औराद
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
मजमूआ-ए-ख़ार-ओ-गुल है ज़ेब-ए-गुलज़ार
दुनिया को न तू क़िबला-ए-हाजात समझ
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे