इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
चंद लम्हों को तेरे आने से
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने आईना-ए-तमन्ना में
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
रात जब भीग के लहराती है
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
तितली कोई बे-तरह भटक कर
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या