ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
सर में तकमील का था इक सौदा
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
उस के और अपने दरमियान में अब
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
पास रह कर जुदाई की तुझ से
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में