कल रात गए ऐन-ए-तरब के हंगाम
बाक़ी नहीं एक शुऊर रखने वाला
इंसान की तबाहियों से क्यूँ हिले दिल-गीर
मफ़्लूज हर इस्तिलाह-ईमाँ कर दे
बे-नग़्मा है ऐ 'जोश' हमारा दरबार
नागिन बन कर मुझे न डसना बादल
थे पहले खिलौनों की तलब में बेताब
मेरे कमरे की छत पे है उस बुत का मकान
ख़ुद से न उदास हूँ न मसरूर हूँ मैं
हर इल्म ओ यक़ीं है इक गुमाँ ऐ साक़ी
ग़ुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है
ज़ब्त-ए-गिर्या