इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
अब हिन्द की ज़ुल्मत से निकलता हूँ मैं
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
क्या दस्त-ए-मिज़ा को हाथ आई तस्बीह
हुशियार है सब से बा-ख़बर है जब तक
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा
अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़