मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब