दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे