सुना है चाह का दावा तुम्हारा
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
न समझा गया अब्र क्या देख कर
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए