'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न समझा गया अब्र क्या देख कर
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब