हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला