जैसा चाहा वैसा मंज़र देखा है
यानी हम ने अपने अंदर देखा है
उन आँखों को देखने वाले कहते हैं
इस दुनिया को हम ने बेहतर देखा है
जाने वाले तुझ को इतना याद रहे
हम ने तेरा हाथ पकड़ कर देखा है
तेरी कैसे बन जाती है दुनिया से
मैं ने अपना आप बदल कर देखा है
Gulzar
Allama Iqbal
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Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
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गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
बना हुआ है हमारा कसी बहाने से
बर्फ़ पिघली तो रास्ता निकला
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
कई तरह के तहाइफ़ पसंद हैं उस को
क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ
कितने ख़्वाब समेटे कोई कितने दर्द कमाएगा
अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से