कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर