बाद-ए-तर्क-ए-आरज़ू बैठा हूँ कैसा मुतमइन
हो गई आसाँ हर इक मुश्किल ब-आसानी मिरी
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जब काली घटाएँ झूम कर आती हैं
होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम
वही अरमान जैसे जी जो मुश्किल से निकलते हैं
दस्त-ए-ख़िरद से पर्दा-कुशाई न हो सकी
बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
फ़रियाद है किस लिए दर-ए-यज़्दाँ पर
साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
छब्बीस जनवरी
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
जंगल की ये दिल-नशीं फ़ज़ा ये बरसात
फ़ित्ना-आरा शोरिश-ए-उम्मीद है मेरे लिए
दिल में कहते हैं कि ऐ काश न आए होते