होता है फिर वो और किसी याद के सुपुर्द
रखता हूँ जो सँभाल के लम्हा फ़राग़ का
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कभी क़तार से बाहर कभी क़तार के बीच
ख़ाशाक से ख़िज़ाँ में रहा नाम बाग़ का
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
धूप जवानी का याराना अपनी जगह
दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई था अगर
अक्स उभरा न था आईना-ए-दिल-दारी का
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के