Ghazal Poetry (page 915)
हिर्स दौलत की न इज़्ज़ ओ जाह की
आसी ग़ाज़ीपुरी
एक जल्वे की हवस वो दम-ए-रेहलत भी नहीं
आसी ग़ाज़ीपुरी
ऐ जुनूँ फिर मिरे सर पर वही शामत आई
आसी ग़ाज़ीपुरी
उस शोख़ से मिलते ही हुई अपनी नज़र तेज़
आसी फ़ाईकी
उस पे क्या गुज़रेगी वक़्त मर्ग अंदाज़ा लगा
आसी फ़ाईकी
ख़ाक सहरा में उड़ाती है ये दीवानी हवा
आसी फ़ाईकी
ये भी नहीं बीमार न थे
आशुफ़्ता चंगेज़ी
तुम ने लिक्खा है लिखो कैसा हूँ मैं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ठिकाने यूँ तो हज़ारों तिरे जहान में थे
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ताबीर इस की क्या है धुआँ देखता हूँ मैं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
सिलसिला अब भी ख़्वाबों का टूटा नहीं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
सदाएँ क़ैद करूँ आहटें चुरा ले जाऊँ
आशुफ़्ता चंगेज़ी
सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
आशुफ़्ता चंगेज़ी
रोने को बहुत रोए बहुत आह-ओ-फ़ुग़ाँ की
आशुफ़्ता चंगेज़ी
पता कहीं से तिरा अब के फिर लगा लाए
आशुफ़्ता चंगेज़ी
पनाहें ढूँढ के कितनी ही रोज़ लाता है
आशुफ़्ता चंगेज़ी
कोई ग़ुल हुआ था न शोर-ए-ख़िज़ाँ
आशुफ़्ता चंगेज़ी
किसे बताते कि मंज़र निगाह में क्या था
आशुफ़्ता चंगेज़ी
किस की तलाश है हमें किस के असर में हैं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ख़बर तो दूर अमीन-ए-ख़बर नहीं आए
आशुफ़्ता चंगेज़ी
जिस से मिल बैठे लगी वो शक्ल पहचानी हुई
आशुफ़्ता चंगेज़ी
जिस की न कोई रात हो ऐसी सहर मिले
आशुफ़्ता चंगेज़ी
इतना क्यूँ शरमाते हैं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
हवाएँ तेज़ थीं ये तो फ़क़त बहाने थे
आशुफ़्ता चंगेज़ी
हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है
आशुफ़्ता चंगेज़ी
हमारे बारे में क्या क्या न कुछ कहा होगा
आशुफ़्ता चंगेज़ी
गुज़र गए हैं जो मौसम कभी न आएँगे
आशुफ़्ता चंगेज़ी
घरौंदे ख़्वाबों के सूरज के साथ रख लेते
आशुफ़्ता चंगेज़ी
घर की हद में सहरा है
आशुफ़्ता चंगेज़ी
दूर तक फैला समुंदर मुझ पे साहिल हो गया
आशुफ़्ता चंगेज़ी