अब बहुत दूर नहीं मंज़िल-ए-दोस्त
काबे से चंद क़दम और सही
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वो करम हो कि सितम एक तअल्लुक़ है ज़रूर
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
अपने दामन में एक तार नहीं
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
चश्म-ए-सय्याद पे हर लहज़ा नज़र रखता है
आफ़ियत की उम्मीद क्या कि अभी
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
या दैर है या काबा है या कू-ए-बुताँ है
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर