हाए ये तेरे हिज्र का आलम
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
इक ज़रा रसमसा के सोते में
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या