इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
रात जब भीग के लहराती है
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से