पास रह कर जुदाई की तुझ से
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
सर में तकमील का था इक सौदा
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल