चाँद की पिघली हुई चाँदी में
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
उस के और अपने दरमियान में अब
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
शर्म दहशत झिझक परेशानी
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल