वो कसी दिन न आ सके पर उसे
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
सर में तकमील का था इक सौदा
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
साल-हा-साल और इक लम्हा
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
उस के और अपने दरमियान में अब
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल