बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
असहाब ने पूछा जो नबी को देखा
जो चश्म ग़म-ए-शह में सदा रोती है
दुनिया भी अजब सरा-ए-फ़ानी देखी
सर खींच न शमशीर-ए-कशीदा की तरह
शब्बीर का ग़म ये जिस के दिल पर होगा
हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा