आदम को अजब ख़ुदा ने रुत्बा बख़्शा
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
ऐ बख़्त-ए-रसा सू-ए-नजफ़ राही कर
उर्यां सर-ए-ख़ातून-ए-ज़मन है अब तक
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
दामाद-ए-रसूल की शहादत है आज
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
दिल ने ग़म-ए-बे-हिसाब क्या क्या देखा
पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू