फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
क्यूँ-कर दिल-ए-ग़म-ज़दा न फ़रियाद करे
बरहम है जहाँ अजब तलातुम है आज
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा
ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
अंजाम पे अपने आह-ओ-ज़ारी कर तू
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
हर ग़ुंचे से शाख़-ए-गुल है क्यूँ नज़्र-ब-कफ़
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था